एक क्षितिज चाहिए (महिला दिवस पर मेरे विचार)
आज मैं कैद हूँ इन दीवारों में,
कल मैं कैद थी समाज के विचारों में |
एक ऐसा आकाश चाहती हूँ,
जिसमे मैं उड़ सकूं,
स्वछंद पंछी की तरह, उन्मुक्त |
जन्म से अबतक अपनी ही समीक्षा करती हुई,
न पा सकी वो जहाँ, जिसकी मैं कल्पना करती थी |
जीवन से परे, मृत सी देह,
चिंता रूपी परिधान पहने,
मैं व्याकुल और चिंतित हूँ,
इस आदमखोर संसार में |
क्या दे सकती हूँ, मैं अपनी पीढ़ी को,
जब विचारों की सीमा लांघने पर,
कुछ दिखाई न दे अंधरे के सिवा,
क्या ऐसे ही मेरा अंत निश्चित है |
पर अब मैं इस निराशा को हटाकर,
आस का दीप जला चुकी हूँ,
और निरंतर मंजिल की ओर अग्रसर हूँ |
अब मैं खुश हूँ, क्योंकि,
मैंने एक ऐसे जहां पाया है,
जिसमें उंच-नीच, लिंग-भेद नहीं,
सभी ओर समानता है,
जैसे पृथ्वी और आकाश मिल रहे हैं,
दूर पहाडी पर |
और मैं उस क्षितिज में खोकर,
खुद को तृप्त महसूस कर रही हूँ |
मेरी जीवनसंगिनी श्रीमती पद्मिनी गोस्वामी के लेख से