शनिवार, 7 मार्च 2009


एक क्षितिज चाहिए (महिला दिवस पर मेरे विचार)   

आज मैं कैद हूँ इन दीवारों में,

कल मैं कैद थी समाज के विचारों में |

एक ऐसा आकाश चाहती हूँ,

जिसमे मैं उड़ सकूं,

स्वछंद पंछी की तरह, उन्मुक्त |

 जन्म से अबतक अपनी ही समीक्षा करती हुई,

  पा सकी वो जहाँ, जिसकी मैं कल्पना करती थी |

जीवन से परे, मृत सी देह,

चिंता रूपी परिधान पहने,

मैं व्याकुल और चिंतित हूँ,

इस आदमखोर संसार में |

 क्या दे सकती हूँ, मैं अपनी पीढ़ी को,

जब विचारों की सीमा लांघने पर,

कुछ दिखाई दे अंधरे के सिवा,

क्या ऐसे ही मेरा अंत निश्चित है |

पर अब मैं इस निराशा को हटाकर,

आस का दीप जला चुकी हूँ,

और निरंतर मंजिल की ओर अग्रसर हूँ |

अब मैं खुश हूँ, क्योंकि,

मैंने एक ऐसे जहां पाया है,

जिसमें उंच-नीच, लिंग-भेद नहीं,

सभी ओर समानता है,

जैसे पृथ्वी और आकाश मिल रहे हैं,

दूर पहाडी पर |

और मैं उस क्षितिज में खोकर,

खुद को तृप्त महसूस कर रही हूँ |

 

 

मेरी जीवनसंगिनी श्रीमती पद्मिनी गोस्वामी के लेख से

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

"बबलू" एक एहसास

कितना प्यारा नाम है, सुनने पर प्रतीत होता है कितना प्यारा व शांत है |
जो जुड़ा हुआ है मेरे जीवन से, आदि अनंत काल से,
आपको लगता हो जैसे चंद बरसों की बात है, परंतू ये नाम हमेशा से मेरे साथ है |

कितना प्यारा लगता है अपने होठों से पुकारना हर बात पर,
माएं तो हमेशा अपने शिशुओं के लिए सोचती हैं इस नाम को रहरह कर,
जो मेरे जीवन से जुड़ा है व अंग-अंग में समाया है |

चाहता हूँ कि ये नाम कभी न छुटे मेरे जीवन से,
जिसके कई रूप रंग संजों रखे हैं मैंने अभी से,
इस नाम से कितनी कहानियां व भावनाएं जुडी हैं,
जो बाल्यअवस्था से चलकर युवा अवस्था में पहुंची हैं |

हमेशा सुनना चाहता हूँ इस नाम को, व देना चाहता हूँ इसे भविष्य को,
जाने क्या हो वर्तमान में मेरा पर भविष्य तो सुरक्षित हो,
आपका तो मैं बस बबलू बन कर रहना चाहता हूँ,
मैं रहूँ न रहूँ पर छोटा बबलू आपको प्रतीत होगा कि मैं आपके साथ हूँ |


कुछ अंतरंग बातें : मुझे घर के सदस्य बबलू कहकर पुकारते हैं, पर जब हम अपने सुपुत्र (नक्षत्र)
के लिए 
बबलू नाम को ही सोच रहे थे  तब मैंने ये कविता श्रीमती जीं के लिए लिखी दिनांक : १५-१२-२००४ को.


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शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

कालिया (जगन्नाथ) उसकी आँखें एक सच


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-sans-serif;font-size:14px;">बरबस आंखों में एक ख्वाब से चले आते हैं,
क्या सच हैं तुम्हारा डरना उन रक्षक आंखों से,
जिसने अनंत काल से हमें प्यार दी, सुरक्षा दी, दुनिया की रक्षा की, 
जिसे मानव जाती ने पूजा तारण हार कालिया कहकर, 
वही जिनसे हमें प्रेरणा मिलती हो, आँखे जिनकी समय की कहानी कहती हो,
जाने तुम्हे कैसा उनकी आंखों से डर,
पूरी आवाम उन्हें पुकारती है कालिया माखनचोर कहकर, 
जिनका अमित इतिहास है, जिसने युगों-युगों से मानव जाती की रक्षा की हो तारणहार बनकर, जिन्हें अक्सर मैं देखता हूँ व सोच में डूब जाता हूँ, कि इन्ही बड़ी-बड़ी आंखों ने ही तो हमें प्रेरणा दी है, इन्ही से समय व भाग्य का चक्र नजर आता है,
ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी दुनिया पर नजर रखे हुए हैं इनके बड़े-बड़े गोल नयन, 
अक्सर मैंने देखा है नन्हे बालक मचल उठते हैं,
खिलौनों के रूप में उन्हें दिखते हैं, बाल्यरूप में भी वे बड़े प्यारे व अनोखे लगते हैं, 
फिर तुम्हें उनसे कैसा डर, जो हैं हम सब के रहबर.  
श्रीमती जी के लिए लिखा गया दिनांक १५-१२-२००४ को जिन्हें भगवान कालिया के बड़े-बड़े नयन अजीब प्रतीत होते थे