शनिवार, 7 मार्च 2009


एक क्षितिज चाहिए (महिला दिवस पर मेरे विचार)   

आज मैं कैद हूँ इन दीवारों में,

कल मैं कैद थी समाज के विचारों में |

एक ऐसा आकाश चाहती हूँ,

जिसमे मैं उड़ सकूं,

स्वछंद पंछी की तरह, उन्मुक्त |

 जन्म से अबतक अपनी ही समीक्षा करती हुई,

  पा सकी वो जहाँ, जिसकी मैं कल्पना करती थी |

जीवन से परे, मृत सी देह,

चिंता रूपी परिधान पहने,

मैं व्याकुल और चिंतित हूँ,

इस आदमखोर संसार में |

 क्या दे सकती हूँ, मैं अपनी पीढ़ी को,

जब विचारों की सीमा लांघने पर,

कुछ दिखाई दे अंधरे के सिवा,

क्या ऐसे ही मेरा अंत निश्चित है |

पर अब मैं इस निराशा को हटाकर,

आस का दीप जला चुकी हूँ,

और निरंतर मंजिल की ओर अग्रसर हूँ |

अब मैं खुश हूँ, क्योंकि,

मैंने एक ऐसे जहां पाया है,

जिसमें उंच-नीच, लिंग-भेद नहीं,

सभी ओर समानता है,

जैसे पृथ्वी और आकाश मिल रहे हैं,

दूर पहाडी पर |

और मैं उस क्षितिज में खोकर,

खुद को तृप्त महसूस कर रही हूँ |

 

 

मेरी जीवनसंगिनी श्रीमती पद्मिनी गोस्वामी के लेख से

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